फूँक मारने की यह आसान विधि भी हमारे गाँव नहीं पहुँची थी

कल गाँव में घूमते हुए इस बालवीर को देखा। माँ के चूल्हे की याद आ गई। उन दिनों दस पैसे की माचिस भी बहुत महंगी होती थी। गाँव में किसी एक के घर चूल्हा जलता, तो माँएं एक-दूसरे से आग भी मांगकर ले आती थीं।



माँ उस अधजले धुँआते उपले पर थोड़ा मिट्टी तेल छिड़कतीं। फिर उसपर पटुए (जूट) की संठी या बाँस की सूखी कड़ची रखकर फूँक मारती। तवे पर रोटी रखी होती, तो भी बीच-बीच में फूँक मारने की नौबत आती। रोटी तो क्या ही फूलेगी, उल्टे माँ का दम फूलने लगता। आँखें लाल हो जातीं।



तब यह हामिद वहाँ पहुँचता। माँ को कहता— ‘तू रहने दे।’ फिर वह अपनी साँस को खींचकर नाभि तक ले जाता। फेफड़े का ढाँचा मानो बाहर झाँकने को होता। गाल भोंपू की तरह फूल जाते। तभी ‘मारुत तुल्य वेगं’ से तूफानी फूँक बाहर आती।



‘अहमग्नि, अहम्-अग्नि’ कहते हुए धुधुआकर अग्नि प्रकट होती। रोटी फूल जाती। सुवर्णमयी अग्नि की उस पीली आभा में माँ का मुखमंडल खिलकर दमक उठता।



तब फूँक मारने की यह आसान विधि भी हमारे गाँव नहीं पहुँची थी। यह सस्ता साधन भी तब सहजप्राप्य नहीं हो सकता था। चिमनी तो बहुत दूर की बात हो गई।



मनुष्यजाति ने छोटी-छोटी वैज्ञानिक रीतियों को जानने, अपनाने में इतनी लंबी यात्रा तय की है! तो फिर दिव्य प्रेम और ज्ञान का मार्ग क्या इतना आसान है!



हौं बिरहा की लाकड़ी, समझि समझि धूंधाउँ।

छूटि पड़ौं यों बिरह तें, जे सारीही जलि जाउँ॥



कबीर तन मन यों जल्या, बिरह अगनि सूँ लागि।

मृतक पीड़ न जाँणई, जाँणैगि यहूँ आगि॥

 



~अव्यक्त, 25 नवम्बर, 2020 🙏