संत रैदास की जाति और राजनीति

 


मध्यकालीन भारत के संतों में एक खास बात यह देखी जाती है कि उन्होंने स्वयं श्रम करते हुए अपना गुजारा किया। लगभग सभी संतों ने अपना पेशा आजीवन जारी रखा।


कबीर कपड़ा बुनते रहे, संत सैन ने नाई का पेशा बरकरार रखा, नामदेव ने कपड़े पर छपाई जारी रखी, दादू दयाल ने रुई धुनने का काम नहीं छोड़ा और गुरु नानक ने अपने जीवन के अंतिम वर्ष खेती करते हुए ही बिताए।


लेकिन इन सबमें रैदास का पेशा एकदम जुदा था। वे मोची थे। जूते बनाते थे और उसकी मरम्मत भी करते थे। समाज की भाषा में उनकी जाति कथित ‘चमार’ की थी।


लेकिन रैदास अपने पेशे और जाति को लेकर किसी प्रकार की आत्महीनता का शिकार न थे। उन्होंने बल्कि अपने पद, बानी और सबद में इसका कई बार उल्लेख किया। उनके समकालीनों और परवर्ती संतों ने भी उनकी जाति का भरपूर उल्लेख किया।


आदि ग्रंथ अथवा गुरु ग्रंथ साहिब में संकलित रैदास जी के कुछ पदों में उनकी जाति का वर्णन इस तरह मिलता है—
 
ऐसी मेरी जात बिखिआत चमारं, हिरदै राम गोबिंद गुन सारं।


एक अन्य पद में वह कहते हैं—


हम अपराधी नीच घरि जनमे, कुटुंब लोग करै हांसी रे।
कहै रैदास राम जपि रसना, काटै जम की फांसी रे।।


एक पद में तो वह इतना तक कहते हैं—


जाति ओछा पाती ओछा ओछा जनमु हमारा।
राजा राम की सेव ना कीनी कहि रविदास चमारा।।


लेकिन संत रैदास जी के संपूर्ण भक्तिमय काव्य को देखकर इसका अंदाजा सहज ही हो जाता है कि अपनी जाति का वर्णन वह अपनी भावप्रवणता में अपने आराध्य के प्रति भक्तिविभोर होकर ही करते हैं। न कि किसी आत्महीनता या सामाजिक द्रोहभाव के वशीभूत होकर।


अपनी जाति की चर्चा वे सायास नहीं करते। वे अपने आराध्य के साथ लगातार भावपूर्ण संवाद में जब जितनी निकटता पाते हैं, जितना खुलते हैं, जितना विनम्र होते हैं, उनसे इसका जिक्र हुआ चला जाता है। एकबार तो वे गोपीवत प्रेम में डूबकर अपने कृष्ण से कहते हैं—


कहै रैदास सुनिं केसवे अंतहकरन बिचार।
तुम्हरी भगति कै कारनैं फिरि ह्वै हौं चमार।।


(रैदास कहता है कि हे केशव, मेरे अंतःकरण की बात सुनो। तुम्हारी भक्ति की खातिर मुझे एक बार फिर से चमार बनने दो।)


तभी तो सिखों के चौथे गुरु रामदास ने कहा—
 
साधू सरणि परै सो उबरै खत्री ब्राहमणु सूदु वैसु चंडालु चंडईआ। 
नामा जैदेउ कबीरु त्रिलोचनु अउजाति रविदासु चमिआरु चमईआ।।
(आदि ग्रंथ, अंग-835/6)


सन् 1560 के आस-पास ओरछा में जन्म से ब्राह्मण नामधारी एक संत हुए। नाम था हरिराम व्यास। संतत्व हासिल करते ही स्वाभाविक रूप से उनकी जाति की भावना चली गई। उन हरिराम व्यास ने अपनी एक साखी में जब रैदास के बारे में लिखा तो क्या खूब लिखा—


व्यास बड़ाई छाड़ि कै, हरि चरणा चित जोरि।
एक भक्त रैदास पर, वारूं ब्राह्मण कोरि।। 


जन्म से कथित ब्राह्मण हरिराम व्यास तो एक भक्त रैदास पर लाखों ब्राह्मण वारने पर उतारू हो गए। इतना ही नहीं उन्होंने आगे भी रैदास को अपना सगा घोषित करते हुए कहा—


‘इतनौ है सब कुटुम हमारौ, सैन धना अरु नामा पीपा और कबीर रैदास चमारौ।’


चाहे वे चित्तौड़ की रानियां हों, चाहे ओरछा का ब्राह्मण हरिराम व्यास हो, चाहे रज्जब मुसलमान हो या गुरु रामदास और गुरु अर्जन देव जैसे सिख गुरु हों, सबने एक स्वर में रैदास चमार को अपना सगा, अपना गुरु और अपने आराध्य तक की श्रेणी में रखा है।


रैदास के द्वारा और रैदास के ऊपर कहे गए पदों में जन्मना जाति की चर्चा तो है, लेकिन जाति कहीं नहीं है। वहाँ जाति अप्रासंगिक हो चुकी है। ‘एक नूर से सब जग उपजा’ की भावना लिए ये सब फिर से उसी नूर से प्रकाशित हो उसमें खो जाना चाहते हैं।


जिसने भी उस नूर से फिर से एकत्व हासिल कर लिया, वह बाकी जगत के लिए सार्वजनीन हो गया। उसकी पहचान का आधार उसकी जाति और उसका नाम नहीं रहा। कम से कम उसके स्वयं के लिए तो नहीं ही रहा। बाकियों के लिए भी वह प्रसंगवश केवल एक सुविधा के रूप में रहा।


संत रैदास की इसी सर्वस्वीकार्यता और सार्वजनीनता को समझना और उसे बार-बार कहना और सुनना आज हमारे लिए और भी जरूरी हो गया है। रैदास किसी भी जातिमात्र से मुक्ति का वही मार्ग दिखा रहे हैं जो शुद्ध आध्यात्मिक है।


आध्यात्मिक जातिमुक्ति का यह तरीका मर्मस्पर्शी है, व्यापक-विराट है, अहिंसक है, और कारगर है। इसमें राजनीति की छौंक लगाने से शायद वह मलिन हो सकता है। क्योंकि अध्यात्म में जो करुणा की जगह दिखाई देती है वह आज की राजनीति में दूर-दूर तक दिखाई नहीं देती है।


अध्यात्म समन्वय की भावभूमि पर जनमानस को जोड़ता है। राजनीति में भी समन्वय और जोड़ने की संभावना होती होगी, लेकिन उसने अपने अभी तक की अपनी यात्रा से यही साबित किया है कि उसका जोड़ और तोड़ केवल सतही ही रहा है।


इसलिए कबीर और रैदास जैसे पवित्र संतों को मौजूदा राजनीति के संकीर्ण फँसाव से दूर रखने की जरूरत है।🙏


Avyakta